विलायत पोर्टलः बैतुल माल को सब के बीच बराबर से बाँटना और किसी प्रकार का ख़ानदानी और नस्ली भेद भाव न करना ही इस्लामी राजनीति और पैग़म्बर की सुन्नत के अनुसार है।
- इमाम अली अ.स. अपनी ख़िलाफ़त के दौर में विशिष्ट, क़बीले के सरदारों और उच्च स्थान रखने वालों के रवैये को पसंद नहीं करते थे, आप कहा करते थे कि यह लोग हमेशा हुकूमत के कामों में बाधा डालते हैं, और बुरे समय में कभी हुकूमत का साथ नहीं देते, और अदालत को बिल्कुल पसंद नहीं करते हैं, इनकी माँग ज़रूरतमंदों से कहीं अधिक रहतीं और लेते समय कभी शुक्रिया भी अदा नहीं करते और किसी भी कारण मना कर देने के समय परिस्थिति को न समझते हुए हंगामा करते थे, आप का मानना था कि दीनी और समाजी कामों मे आम जनता की अहम भूमिका होती है, और वही दीनी सरहदों की रक्षा में काम आते हैं।
अब ज़ाहिर है कि इस नज़रिये के बाद कैसे कोई विशिष्ट और उच्च स्थान रखने वालों कैसे विशेष दर्जा दे सकता है।
- अगर इमाम अली अ.स. इस प्रकार के लोगों को विशेष दर्जा दे कर भेद भाव करते तो न केवल यह इस्लामी नीति के विरुध्द था बल्कि आपको यह ऐलान करना पड़ता कि आप पिछले हाकिमों की ही पैरवी करते हैं, जबकि न ही आप इस रवैये को पसंद करते थे और न ही उस समय के मोमिन लोग।
- ऐसे लोगों को विशेष दर्जा देने से आम जनता के दिलों में वर्षों बाद जगी हुई आशा निराशा में बदल जाती, यहाँ तक लोगों को इस्लाम और उसके महान पैग़म्बर से भी निराशा होती।
- इनको विशेष दर्जा देने का मतलब उन्हें उनकी साज़िशों में मज़बूत करना और आम जनता को अपने विरुध्द खड़ा करना था, जिसे राजनीति ख़ुदकुशी कहा जाता है।
- अगर यह मान भी लिया जाए कि तल्हा और ज़ुबैर ने इस्लाम को फ़ैलाने में काफ़ी मेहनत की थी, लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. की वफ़ात के बाद ख़ास कर उस्मान की ख़िलाफ़त के आख़िरी दिनों में पूरी तरह से दुनिया के लालची हो गए थे और आम जीवन को छोड़ कर उच्च स्तर का जीवन बिताने लगे थे, और इस प्रकार वह अपनी जीवन शैली को लोगों के सामने ख़ुद ला चुके थे, यही कारण है कि वह इमाम अली अ.स. की ख़िलाफ़त में किसी प्रकार के पद के क़ाबिल नहीं थे, क्योंकि वह पद पा कर अपनी नीतियों को लागू करते और लोगों को आदिल हुकूमत के विरुध्द भड़काते, जैसा कि इमाम अली अ.स. ने फ़रमाया कि वह अपने दिमाग़ में ख़िलाफ़त की आड़ में बादशाहत लागू करना चाहते थे। (अनसाबुल-अशराफ़, जिल्द 5, पेज 106)
- उस समय बसरा और कूफ़ा (जिन पर हुकूमत की यह दोनों आस लगाए हुए थे) मामूली शहर नहीं थे, ईरान जैसे देश की हुकूमत और राजनीतिक मामले इन्हीं दोनो शहरों के हाकिमों के इशारों पर चलते थे, उस समय मदीना शहर फ़ौजी और आर्थिक मामले में काफ़ी पीछे था, लेकिन कूफ़ा, बसरा और आस पास के इलाक़े इस्लामी हुकूमत का भरपूर फ़ायदा उठाते थे, इसलिए इन दोनों शहरों के हाकिम किसी भी समय मदीने पर हमला कर के उस पर क़ब्ज़ा कर सकते थे, यह अहम बात इमाम अली अ.स. जैसे इतिहास के सबसे माहिर राजनीतिज्ञ की तेज़ निगाहों से कैसे छिप सकती थी।
- अगर इमाम अली अ.स. इन दोनों शहरों की हुकूमत इन दोनों के हवाले कर देते फिर किस प्रकार आपका सुधार का दावा सच होता, बाद के वर्षों में होने वाली कुछ घटनाएँ साफ़ ज़ाहिर करती हैं कि इन दोनों को इस्लाम, क़ुर्आन और पैग़म्बर की सुन्नत का थोड़ा भी ख़्याल नहीं था, क्योंकि हुकूमत की लालच के कारण इन्होंने बनी उमय्या तक से हाथ मिला लिया था, और पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. की बीवी का प्रयोग करते हुए बसरे वालों को अपनी ओर कर के सैकड़ों बे गुनाह मुसलमानों का ख़ून बहाया। (मुरव्वजुज़-ज़हब, जिल्द 2, पेज 366)
- अमीरुल मोमेनीन अ.स. के ख़ुतबों की रौशनी में यह बात भी सामने आती है कि, इन दोनों की हुकूमत के अलावा कुछ और माँगें भी थीं, जैसे इमाम अली अ.स. हुकूमत के मामलों में उन से मशविरा करें, और बैतुल माल को बाँटने में भेदभाव करें, इमाम अली अ.स. इनके जवाब में फ़रमाते कि, मैं अल्लाह की किताब और पैग़म्बर की सुन्नत के अनुसार अमल करूँगा, और अगर कभी आवश्यकता हुई तो तुम से और आम लोगों से मशविरा भी करूँगा, और उनकी दूसरी माँग का इस प्रकार जवाब दिया, और बैतुल माल को मैं पैग़म्बर की सुन्नत के अनुसार बाँटता हूँ, इसलिए किसी को इस बारे में सवाल करने की कोई आवश्यकता नहीं। (मुरव्वजुज़-ज़हब, जिल्द 2, पेज 366)