शिया मज़हब कब से वुजूद में आया? (1)
पहले और सही दृष्टिकोण यह है कि शिया समुदाय का आरम्भ अहदे रिसालत अर्थात रसूले इस्लाम स. के जमाने से है। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार शिया समुदाय का शुरूआत पैग़म्बरे इस्लाम स. के देहांत के बाद के शुरूआती दिनों से सम्बंधित है

इससे पहले के लेखों में हमने शिया की परिभाषा और उसके विभिन्न अर्थ बयान किए थे। अब शिया समुदाय के इतिहास और वह कब यहा बयान करेगें कि सिया मज़हब कब से वुजूद में आया है। इस बारे में विभिन्न दृष्टिकोण पाए जाते हैं। सबसे पहले और सही दृष्टिकोण यह है कि शिया समुदाय का आरम्भ अहदे रिसालत अर्थात रसूले इस्लाम स. के जमाने से है। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार शिया समुदाय का शुरूआत पैग़म्बरे इस्लाम स. के देहांत के बाद के शुरूआती दिनों से सम्बंधित है। इन दो दृष्टिकोणों के अलावा और दूसरे दृष्टिकोण भी पाए जाते हैं जिनके बारे में अलग लेखों में चर्चा की जाएगी।
पहला दृष्टिकोण
शिया उल्मा और विचारकों के एक गुट का मानना यह है कि शिया मज़हब की शुरूआत रसूले इस्लाम स. के ज़माने में ही हो गई थी। और ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम ने ही अपने मुबारक हाथों से शियत का पौधा लगाया और ख़ुद उसकी सिंचाई करके उसे परवान चढ़ाया। इस नज़रिये के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं।
1. पैग़म्बरे इस्लाम के ऐसे बहुत से कथन मौजूद हैं जिनमें उन्होंने एक गुट की अली के शिया होने के कारण प्रशंसा व सराहना की है। इन हदीसों का नतीजा यह निकलता है कि उस ज़माने में कुछ ऐसे लोग भी थे जो हज़रत अली अ. से विशेष सम्बंध रखते थे, उनसे प्यार अभिव्यक्ति करते तथा उनका अनुसरण करते थे और उनके कथन व चरित्र को इसलिए आदर्श बनाते थे कि उनका व्यवहार व चरित्र, पैग़म्बरे इस्लाम स. का व्यवहार व चरित्र है।
2. इतिहास के अनुसार जनाबे सलमाने फ़ारसी, अबूज़रे ग़फ़्फ़ारी, मिक़दाद और अम्मारे यासिर जैसे रसूले इस्लाम के सहाबी, रसूले इस्लाम स. के ज़माने में अली अ. के शिया के नाम से पहचाने जाते थे।
3. पैग़म्बर स. की हदीसें जैसे हदीसे यौमुद्दार (दावते ज़ुल-अशीरः), हदीसे ग़दीर, हदीसे मंज़िलत, हदीसे अलीयुन मअल हक़, अना मदीनतुल-इल्म जैसी हदीसें स्पष्ट रूप से हज़रत अली अ. की ख़िलाफ़त व इमामत को साबित करती हैं। दूसरे क़ुरआनी आयतों और बौद्धिक प्रमाणों के अलावा यही हदीसें इमामत के मुद्दे में शियों के दृष्टिकोण का मूल आधार हैं। दूसरी ओर हज़रत अली अ. की बिला फ़स्ल इमामत ही तशय्यो का आधार है। हज़रत अली अ. और आपके शियों की प्रशंसा से सम्बंधित पैग़म्बरे इस्लाम की हदीसों की ओर इशारा करने के बाद अल्लामा काशेफ़ुल ग़ेता लिखते हैं :
इन हदीसों का मतलब यह है कि पैग़म्बर के सहाबियों में कुछ लोग अली अ. के शिया थे और अली अ. के शिया का मतलब यह नहीं है कि आपसे प्यार करते थे या आपसे दुश्मनी नहीं करते थे। इसलिए कि किसी इंसान से केवल प्यार करना या उससे नफ़रत व दुश्मनी न करना उस इंसान का शिया कहलाने के लिए पर्याप्त नहीं है और अरबी शब्दकोष में शिया के यह अर्थ नहीं हैं बल्कि शिया का मतलब प्यार करने के अलावा उसका अनुसरण करना, उसके पदचिन्ह पर चलना है। अब अगर शिया शब्द कहीं किसी और अर्थ में इस्तेमाल हो तो अवास्तविक व कृत्रिम अर्थ में होगा, वास्तविक अर्थ में नहीं। इस आधार पर इन हदीसों से यही ज़ाहिर होता है कि पैग़म्बर स. के सहाबियों के बीच ऐसे लोग थे जो हज़रत अली अ. से विशेष निस्बत और विशेष सम्बंध रखते थे और आपके व्यवहार व चरित्र को पैग़म्बर स. की इच्छा के अनुरूप मानते थे और उनका यक़ीन था कि अली अ. रसूले इस्लाम के राज़दार व सच्चे उत्तराधिकारी हैं।
(अस्लुश्शिया व उसूलेहा प्रकाशित क़ाहेरा पृष्ठ 111 व 113, और प्रकाशित दारुल-अज़वा पृष्ठ 121व 123 ,अल्लामा सय्यद मोहसिन अमीन, आयानुश्शिया भाग 1 पृष्ठ 23, शेख़ मुहम्मद हुसैन मुज़फ़्फ़र ، तारीख़ुश्शिया पृष्ठ 8 व 9, शेख़ जवाद मुग़नियः अश-शिया वत्तशय्यो पृष्ठ 16, अल्लामा तबातबाई ،शिया दर इस्लाम पृष्ठ 5 से 7، उस्ताद सुबहानी, बुहूसुन फ़िल मेलले वन्नहेल भाग 6 पृष्ठ 106 से 112, और सय्यद तालिब ख़िरसान ने नश्अतुत्तशय्यो पृष्ठ 24 से 29 में इसी दृष्टिकोण को अपनाया है।)
अल्लामा तबातबाई भी शिया मज़हब की उत्पत्ति के बारे में कहते हैं :
शिया समुदाय की उत्पत्ति को जो शुरू में अली अ. के शिया के नाम से मशहूर हुआ, रसूले इस्लाम स. के ज़माने से स्वीकार करना चाहिए। इस्लाम की दावत और 32 वर्ष पर आधारित प्रगति बहुत सी चीज़ों की मांग करती है इसलिए पैग़म्बर के सहाबियों के बीच ऐसे गुट (शिया) का वुजूद भी स्वाभाविक व नैसर्गिक है।
अल्लामा तबातबाई ने उसके बाद उन हदीसों की ओर इशारा किया है जिनसे हज़रत अली अ. की इमामत, रसूले इस्लाम स. के सहाबियों के बीच आपके और पैग़म्बरे इस्लाम स. से आपके विशेष सम्बंध का पता चलता है, फिर अल्लामा तबातबाई लिखते हैं :
ज़ाहिर सी बात है कि ऐसे विशेष गुण और दूसरों पर आपकी प्रमुखता व श्रेष्ठता तथा पैग़म्बरे इस्लाम स. का आपसे अच्छा व्यवहार कारण बनता था कि कुछ सहाबी अली अ. से प्यार करते और उनके अनुसरण द्वारा उनसे क़रीब होने की कोशिश करते थे वहीं दूसरी ओर यही गुण और फ़ज़ीलतें कुछ लोगों को आपसे दुश्मनी करने और आपसे नफ़रत करने पर उकसाती थीं।
इन सारी बातों के अलावा अली अ. के शिया और अहलेबैत के शिया का उल्लेख, पैग़म्बरे इस्लाम की हदीसों में बहुत ज़्यादा दिखाई देता है। (शिया दर इस्लाम 5-7)।
इस दृष्टिकोण से स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा नहीं है कि रसूले इस्लाम स. के ज़माने में मुसलमानों के बीच इमामत का मसला चर्चा का विषय था और एक गुट ने हज़रत अली अ. की इमामत को स्वीकार कर लिया और दूसरे गुट ने स्वीकार नहीं किया इसलिए पहले गुट को शिया कहा गया ताकि यह कहा जा सके कि उस ज़माने में इमामत का मुद्दा ही नहीं छिड़ा था और न ही इस बारे में कोई मतभेद था बल्कि इस दृष्टिकोण से मुराद यह है कि उस ज़माने में भी एक ऐसा गुट था जो हज़रत अली अ. के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम स. की हदीसों पर ध्यान देता था और पैग़म्बर स. के निकट आपकी प्रतिष्ठा व महिमा को दृष्टिगत रखता था और आपको पैग़म्बरे इस्लाम स. का राज़दार और उनकी शिक्षाओं का रक्षक समझता था और इसी आधार पर आपसे प्यार करता और आपके अनुसरण को ही पैग़म्बर का अनुसरण समझता था। और यह वही गुट है जिसे पैग़म्बरे इस्लाम के देहांत के बाद अली अ. के ख़ास समर्थक और अनुगामी कहा जाता था और इसी गुट को पैग़म्बर स. ने अली का शिया कहा है।